सर्वप्रथम आप सभी पाठकों को सावन यात्रा, तीज, रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई। स्वतंत्रता दिवस के बहाने आइए जरा इस पर चर्चा करें कि हम कितने आजाद हैं? और उससे पहले इस आजादी को कैसे समझे? क्योंकि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं, इसलिए हमें आजादी को इसी परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। संविधान की प्रस्तावना में लिखा है- ‘हम भारत के लोग, संप्रभुत्व, गणतंत्र…’ अर्थात् भारत के लिए ऐसे गणतंत्र की कल्पना की गई है, जिसमें हम को प्राथमिकता मिली है। जब हम ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का प्रयोग करते हैं, तब हम सहअस्तित्व को उद्घाटित कर रहे होते हैं। अर्थात् असहमति को सम्मान। संविधान हमें असहमति को सम्मान देने का आदेश करता है। हम अपनी स्वाभाविक चेतना में आस्तिक, आस्थावान् लोग हैं, इसलिए हमें समझना होगा कि लोकतंत्र के मंदिर में संविधान रूपी देवता हमें क्या आदेशित करते हैं। संविधान रूपी देवता हमारे समाज को समरस (एकरस नहीं) बनाए रखने के लिए कौन-सा देव-रस बहुतायत मात्रा में छोड़कर गए हैं? क्या आपको पता है? जी हां, आप ठीक सोच रहे हैं, वह है- सहअस्तित्व का स्वीकार एवं असहमति को सम्मान। इस देवरस से समाज समरस होगाविडंबना यह है कि शुद्धिकरण के नाम पर समाज को एकरस बनाने की धुन सवार है आज समाज के कर्णधारों को। भारतीयता की पहचान फिर से लिखे जाने की कोशिश चल रही है इन दिनों। अब आती हूं उसी मूल प्रश्न पर कि मौजूदा समाज में असहमति को कितना सम्मान है? और सहअस्तित्व का कितना स्वीकार है? क्योंकि इससे ही तय होगा कि हम कितने आजाद हैं, और आजाद हैं भी कि नहीं? आज टेलीविजन की डिबेट को गौर से देखिए, तो यह सवाल चीख-चीखकर स्वयं का जवाब मांग रहा है। चैनल पर पूछे जा रहे प्रश्न की डिजाइनिंग इस तरह से की जाती है कि जवाब समाज के एक हिस्से के पक्ष में और दूसरे हिस्से के विपक्ष में हो जाता है। अखबारों एवं पत्रिकाओं के संपादकीय एवं आलेख किसी विषय पर समालोचना न होकर, एकपक्षीय यशोगान अथवा किसी के अस्तित्व को नकारने जैसे हो रहे हैं। सोशल मीडिया पर चल रहे कंटेंट को देखिए, तो शायद ही कोई कंटेंट अथवा पोस्ट किसी विषय की वस्तुनिष्ठ व्याख्या मिलेगी, बल्कि ये पोस्ट व्यक्तिनिष्ठ व्याख्या होते हैं, जो कि अपने निष्कर्ष में सहअस्तित्व का स्वीकार न होकर, किसी के अस्तित्व पर प्रहार सरीखा होते हैं
सहअस्तित्व का स्वीकार न होकर, किसी के अस्तित्व पर प्रहार सरीखा होते हैंसवाल है कि अगर हमने एक बार आजादी के परिप्रेक्ष्य में इस विकराल होती समस्या को स्वीकार लिया है, तो सोचने का वक्त है कि इससे छुटकारा कैसे पाएं? या हम यूं भी सोच सकते हैं कि क्या धर्म हमें इस बारे में सचेत करता है? कोई नई राह दिखाता है? जी, बिलकुल दिखाता है। सोचिए तो अगस्त आजादी का भी महीना है और सावन का भी महीना है। सावन का महीना अर्थात् भगवान शिव का महीना। भगवान शिव अर्द्धनारीश्वर हैं। अर्थात् वे सहअस्तित्व का स्वीकार हमें सिखाते हैं। नीलकंठ हैं भोले बाबा। विष को कंठ में धारणकर भोले बाबा असहमति को सम्मान देना सिखा रहे हैं। ऐसे में हम असहमति को असम्मानित, लांछित करने का पाप क्यों कर रहे हैं, हमें भगवान शिव के इशारे समझकर असहमति को सम्मान देना सीखना होगा, सहअस्तित्व को बढ़ावा देना होगा, तभी हम खुद को आजाद कहलाने के हकदार होंगे। क्योंकि आजादी तो संविधान के मानक पर परखी जाएगी न!
ॐ पूर्णमिद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमद्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते ॐ शान्ति शान्ति शान्ति
रश्मि मल्होत्रा
मुख्य संपादक ओम् ।