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संस्कारों के गंगाजल से सींचें अपनी सन्तानों को

घर में पधारे अपने अतिथि का यदि आप प्रफुल्लित होकर सत्कार करते हैं तो कभी भी आपके बच्चे अतिथि का अपमान नहीं करेंगे, क्योंकि उन्होंने बचपन से ही अतिथि सत्कार के संस्कार आपसे सीखे। कोई घर में आया और आपने मुंह बना लिया ‘हे भगवान, यह आफत कहाँ से आ गई, अब कौन छोड़े अपना बेडरूम इन आफतों के लिए’अगर तुमने ऐसा भाव रखा तो जिन्दगी में कभी तुम्हारे बच्चे किसी का सम्मान करना सीख नहीं सकते। इसलिए मेरा अनुरोध है कि जीवन को प्रमाणित बनाओ, परिपक्व बनाओ, क्योंकि तुम्हारा जीवन तुम्हारे लिए नहीं, तुम्हारे बच्चों के लिए भी है। वे तम्हारी पळाई हैं, तुम्हारा ही अनुसरण करेंगे। तुम उन्हें जो दोगी वही वे दूसरों को बांटेंगे, उसी से उनका व्यक्तित्व निर्माण होगाएक साल का बच्चा क्या जाने कि लरी का प्रयोग क्या होता है?तमने उससे केक कटवाया। कोई बात नहीं, अभी वह केक काट रहा है, बड़ा होगा तो तुम्हारी जेब काटेगा। तुम मोमबत्तियां जलवाकर उससे बुझवाते हो, बेशर्मी से ताली बजाते हो। बड़ा होकर वह अंधकार ही करेगा, जलते दीयों को बुझाएगा। वह संस्कार उसे किसने दिया?आधुनिकता के नाम पर आपने ही उसे यह संस्कार दिया|

विदेशियों  के यहाँ मोमबत्ती बुझाना शगुन होता होगा, लेकिन हमारे यहाँ तो दीया बुझाना अपशगुन माना जाता है|हम तो दिये जलाते हैं। संतों ने ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का मंत्र हमें दिया है। बच्चे तो तुलसी के पौधे हैं, उन्हें शराब से नहीं संस्कारों के गंगाजल से सींचकर उन्हें संस्कारी बनाओगे तो वृद्धावस्था में तुमको संतोष होगा कि मैंने अपने बच्चों को अच्छे सुन्दर संस्कार दिए, मनुष्य बनाया, देश-भक्त बनाया। आज वे देश के प्रति समर्पित हैं। ‘मां, ये तन तेरा है, धन तेरा है, मन तेरा है, जो कुछ भी मेरे पास है सब तेरे चरणों में अर्पित करता हूँ’। यह भावना बच्चा तभी व्यक्त कर सकता है जब उसके अन्दर तुम इन भावनाओं की घुट्टी को अपने दूध में मिलाकर पिलाओगी। तुम्हें इन प्राचीन परम्पराओं को जिन्दा रखना है। यह बड़ी पवित्र परम्पराएं हैं, हमारे पुरखों की धरोहर हैं, उन्होंने खून-पसीने से इन्हें सींचा है। आधुनिकता के नाम पर तुम इनकी खिल्ली मत उड़ाओ। अपने दायित्व को समयो अपनी हिन्दू संस्कृति  की रक्षक, संवाहक बनो। बच्चा संस्कारी होता है अपनी माँ को देखकरमाँ ही बच्चों के लिए केन्द्र बिन्द होती है जिसके चारों ओर वद पसता है। माँ का चलना, उठना-बैठना. भोजन करना आदि प्रत्येक कार्य बच्चे के मन पर अपनी छाप छोड़ जाता है।

वह उसी की नकल करता है| अपने बच्चे को आत्म-निर्णय का अधिकार मत दीजिए। वे छोटे हैं, उनका बौद्धिक स्तर अभी निर्णय करने योग्य नहीं है। उन्हें जो दिखाओगे वही वे देखेंगे, जैसी रूचि पैदा करोगे वैसी ही रूचि पैदा हो जाएगी। उन्हें वेद मंत्रों का उच्चारण करने को कहिए। उनके जन्मदिन पर घर के लोगों के बीच उनके साथ प्यार और सद्भावना से दिन बिताइए, ब्राह्मण बुलाकर स्वस्ति वाचन करवाइए। आशीर्वादों की वर्षा होगी, सन्ताने संस्कारी होगी। अपने बच्चों को संस्कार देना चाहिए, कि वे माता-पिता का सम्मान करें। बेटी को आशीर्वाद दो कि वह ससुराल को अपना घर समझे। सास-ससुर को माता-पिता और ननद-देवर को भाई बहन समझे और पति की सेवा करे। तुम देवरानियों-जेठानियों के साथ मिलजुल कर रहो। बेटी भी उसी का अनुसरण करेगी और अपने ससुराल को स्वर्ग बना देगी। जहाँ जाएगी प्यार हो प्यार बिखेरेंगी, सभ्य-सुसंस्कृत सन्तानों को जन्म देगी। संस्कार हमारे पूर्वजों की सम्पत्ति और धरोहर हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते जाते हैंसुसंस्कृत परिवार की कन्या जब ससुराल जाती हैतो वह कुल-लक्ष्मी के रूप में पूजी जाती है। सेवा, त्याग, समर्पण ही उसका जीवन होता है। वह पति को परमश्वर मानकर उसकी पूजा करती है, उसे अपना सर्वस्व समर्पित कर देती है। सीता-सावित्रि की तरह पति के कदमों से कदम मिलाकर चलती है|

वह समर्पण कुछ चाहता ही नहीं। जहाँ प्रश्न हो, शंका हो, समर्पण हो ही नहीं सकता। समर्पण तो पूर्ण श्रद्धा-भावना और त्याग से किया जाता है बस उसके लिए कोई उचित स्थान मिले। वह कहीं भी हो सकता है, देश के प्रति, परिवार के प्रति, पति के प्रति।

सुख-दु:ख की भागीदार होती है। समर्पण की प्रतिमूर्ति होती है| वह समर्पण कुछ चाहता ही नहीं। जहाँ प्रश्न हो, शंका हो, समर्पण हो ही नहीं सकता। समर्पण तो प ‘ श्रद्धा- भा वना और त्याग से किया जाता है बस उसके लिए कोई उचित स्थान मिले। वह कहीं भी हो सकता है, देश के प्रति, परिवार के प्रति, पति के प्रति। जिसने समर्पण का केन्द्र समझ लिया, समर्पण का मर्म समझ लिया, उसने जीवन समझ लिया। समर्पण कहाँ हो?क्या संसार के क्षणिक विषय-वासनाओं और सुख भोग की आकांक्षाओं में?सांसारिक चकाचौध में?नहीं, सच्चा समर्पण वहाँ हो ही नहीं सकता। सच्चे समर्पण के लिए सच्चा केन्द्र भी चाहिए। समर्पण अमोध शक्ति है। इसे उत्पन्न करने के लिए केवल भावुकता पर्याप्त नहीं है, विवेक भी होना चाहिए। विवेकपूर्ण समर्थन ही सार्थक होता है और ऐसा समर्पण स्त्री ही कर सकती है, जिससे शिवत्व की क हाता है और ऐसा समर्पण स्त्री अभिवृद्धि हो, सुख-शान्ति सृजित हो। वैदिककाल में ही नहीं, आधुनिक जमाने में भी स्त्रियां ऐसा समर्पण करती हैं। एक दिन पति थका-हारा ऑफिस से आया और पत्नी से पानी मांगा। जब पत्नी पानी लाई तब तक वह सो गया। पत्नी इंतजार में रातभर खड़ी रहीं कि न जाने कब पति की आंख खुले और पानी मांग ले। इसी प्रतीक्षा में सवेरा हो गया|

पति ने आँख खोली तो देखा पत्नी जल का गिलास लिए खड़ी है। उसने पूछा ‘अरे! तुम रातभर पानी लिए खड़ी रही’?वह बोली, हां पतिदेव, आपके उठने की प्रतीक्षा में रात कैसे कट गई पता ही नहीं चला’। ऐसा प्रेम, ऐसा समर्पणलेकिन उसे पाने के लिए पति की योग्यता और उसका उज्जवल गुण भी अनिवार्य है।

मैं आपको एक तथ्य बताना चाहती हूँ, जो भारत की मनीषा ने हमको दिया है। पुरूष पुरूषोत्तम बने और स्त्री समर्पण की मूर्ति बने। वह अपने पति में परमेश्वर  का दर्शन करे। पुरूष सद्गुणों को धारण करे और पत्नी उसके चरणों में समर्पित हो जाए। वे तभी तक दो रहेंगे जब तक विपरीत होंगे। आकर्षण तभी होगा जब वह विारीत होंगे। आप गणित जानते हैं, वह भी गणित जानती है तो कोई आकर्षण हो ही नहीं सकता। आकर्षण हमेशा विपरीत के प्रति पैदा होता है। विपरीत एक दूसरे को अपनी ओर खींचता है।

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