The OM Foundation

मन को साधना बहुत जरूरी

गंगा दशहरा इस बात का प्रतीक है कि सभी पाप गंगा मैया अपने में समेट लेती हैं, मोेक्ष का द्वार हैं गंगा मैया। लेकिन आज मिलियन डॉलर का सवाल यह है कि इसी गंगा मैया का पवित्रा जल पीकर लोग बच्ची को अपवित्रा कैसे कर देते हैं? पूरे देश ने देखा कि कठुआ में एक बच्ची को कैसे अपवित्रा किया गया? उत्तर प्रदेश में जनता के सेवक ऐसे ही जघन्य मामलों में पंफसे हैं…और भी न जाने ऐसे कितने केस आए दिन हम रोज सुनते हैं और कलेजा मुंह को आता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं…
हम जिस यात्रा पर चल पड़े हैं, खासकर आपकी पत्रिका ओम् जिन विचारों को आगे बढ़ाती है, उस यात्रा में ऐसी सूचनाएं बाध्क बनकर खड़ी हो जाती हैं। क्योंकि सवाल इतने भर का नहीं है कि ऐसी जघन्य घटनाएं हुईं, सवाल यह है कि हम एक समाज के तौर पर ऐसी घटनाओं से निपटते समय आपस में हिंदू-मुस्लिम के तौर पर बंट गए और बंट जाते हैं। ये है हमारी असल चिंता का कारण। गंगा-जमुनी तहजीब की विरासत हमसे संभाली नहीं जा रही, ऐसा लगता है। समाज के तौर पर हममें पहले तो यह विकार आया है कि हम अपनी बच्ची और दूसरे की बच्ची में भारी भेदभाव करना सीख गए हैं और उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमें इसे सही साबित करने के लिए खूबसूरत तर्क भी दिए हैं। मसलन सभी को अपने तरीके से जीने का हक है। इस विचार की ही अगली कड़ी है- लिव-इन रिलेशन। पहली नजर में लिव-इन रिलेशन में कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन गौर से देखें तो यह रिलेशन समाज के कमजर्पफ युवाओं को अपनी मर्जी करने की छूट देता है। लिव-इन एक जिम्मेदारी है, विवाह संस्था से भी बड़ी जिम्मेदारी। क्योंकि अच्छे-बुरे की सारी जिम्मेदारी सिर्पफ दो कंधें पर होती है- मेल एंड पफीमेल पर। जबकि विवाह में अच्छे-बुरे को संभालने के लिए माता-पिता एवं अन्य बंध्ु-बांध्व भी सामने आ जाते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि लिव-इन का त्रासदीकारक अंत होता है।
आप कहेंगे, यह तो विषयांतर हो गया। दरअसल यह व्यभिचार के रूपांतरण का एक पहलू भर है, जिसकी सबसे घृणास्पद परिणति होती है कठुआ कांड के रूपक में। हम जबकि आर्थिक समाज के तौर पर बहुत तेजी से बदल रहे हैं। अमीर-गरीब के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है, ऐसे में समाज को जोड़नेवाला तंतु पूरी तरह टूटकर बिखर गया है और यह खाई उपभोक्तावादी समाज में सबकुछ तुरंत हासिल करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी हालत में ओम पत्रिका यह दायित्व बनता है कि हम आपसे कहें कि समाज के जोड़नेवाले तंतु यथा-प्रेम, आपसी सम्मान, विश्वास, दूसरे के ‘ना’ को स्वीकार भाव में लेना आदि, को जीवन में धरण करना होगा, और धरण ही नहीं करना होगा, अपितु उन्हें जीना होगा जीवन में, तब जाकर कठुआ कांड जैसी घटनाएं रुकेंगी। किसी भी किस्म के कानून बनाने से ऐसी घटनाएं नहीं रुकेंगी। जब मन रोगी हो जाए, तो तन का इलाज करने से तो बात नहीं बनेगी न!

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