संतान उत्पन्न करना मनुष्य के लिए नैसर्गिक है। हर मानव की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह स्वस्थ एवं दीर्घायु हो और उसकी संतान हो। जीवन के अन्य श्रेष्ठ कार्यों की तरह यदि संतान-उत्पत्ति की सुन्दर प्रक्रिया को भी योजनाबद्ध तरीके से किया जाये, तो यह बहुत उत्तम रहता है। आदर्शतः गर्भावस्था की तैयारी गर्भाधान से छः महीने पहले ही प्रारम्भ हो जाती है। जब पति-पत्नी दोनों अपने आपको एक नये जीव को जन्म देने के लिए तैयार करते हैं। जिस प्रकार एक कुशल माली बीज बोने से पहले जमीन को तैयार करता है, उसी प्रकार दम्पत्ति का शरीर भी तैयार होना चाहिये अर्थात शुद्ध हो, पोषित हो और विषैले तत्वों एवं अवरोधों से रहित होना चाहिए। भावी माता के शरीर का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है, ताकि इस पूरी यात्रा को करते समय उसका शरीर सशक्त व ऊर्जावान रहे। इसी प्रकार भावी पिता को भी अपने शरीर को विषैले तत्वों से रहित करके अपने प्रजनन ऊतकों को पोषित करना चाहिये, ताकि उनमें प्रजनन की पर्याप्त क्षमता हो।
आयुर्वेद के अनुसार, ‘अपने आप को स्वस्थ कैसे रखा जाए?’ इस बारे में सोचने से पहले, अपने शरीर की प्रकृत्ति को समझना अति आवश्यक है| इसके लिए आप किसी कुशल आयुर्वेदिक वैद्य से मिलकर अपनी प्रकृति का निरीक्षण करवायें, क्योंकि प्रकृति निर्धारण के बाद ही पथ्य-अपथ्य, आपकी जीवन शैली, वर्ष का कौन सा समय गर्भधारण के लिए समुचित है आदि विषयों पर विचार किया जा सकता है। इससे पहले कि हम उपरोक्त विषय में आयुर्वेद का मत जानें हमें प्रजनन-प्रणाली को समझने की आवश्यकता है।
अंडे और शुक्राणु की उत्पत्ति के विषय में आयुर्वैदिक मत
हमारे शरीर में सप्त धातुयें हैं- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। जो पोषक तत्व हम ग्रहण करते हैं, वे हमारे शरीर में इन सात धातुओं के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इन पोषक तत्वों के परिवर्तित रूप का परिणाम ही स्त्री शरीर में अंडा और पुरुष शरीर में शुक्राणु हैं। अंडा और शुक्राणु ही इन सप्त धातुओं का सार रूप है। जो भी हम खाते-पीते हैं, वह सब तब तक निरन्तर परिष्कृत होता जाता है, जब तक वह सार तत्व के रूप में परिवर्तित न हो जाये। इसी सार को संस्कृत में ‘शुक्र’ कहते हैं और यही जीवन का बीज है। आयुर्वेद का ऐसा मत है कि अगर शरीर में कोई अवरोध है, तो प्रजनन प्रणाली की क्षमता में कमी आ जाती है। इन अवरोधों के परिणामस्वरूप असंतुलित पाचन-तंत्र, वजन बढ़ना, खून की कमी, कब्ज और फाइब्रॉयड आदि समस्याएं हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में प्रजनन ऊतकों को पुनः सशक्त करने की आवश्यकता होती है। कुछ ऐसे विशेष खाद्य पदार्थ व जड़ी बूटियां हैं, जो अंडे व शुक्राणु को सामान्य भोजन की अपेक्षा अधिक शक्ति प्रदान करते हैं, जैसे- दूध, बादाम, अखरोट, तिल के बीज, लौकी के बीज, केसर, शहद, गाय का घी, काले चने आदि। आयुर्वेद में ये सभी खाद्य-पदार्थ प्रजनन क्षमता को बढ़ाने वाले कहे गये हैं। अश्वगंधा और शतावरी ऐसी जड़ी बूटियां हैं जो अंडे व शुक्राणु के गुणवत्ता और मात्रा दोनों की ही वृद्धि करते हैं। किसी व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार उसे कौन-सी जड़ी बूटियों का सेवन करना चाहिए, यह सुझाव दिया जाता है। वात प्रधान प्रकृति वाले व्यक्तियों के लिए ‘अश्वगंधा’, पित्त प्रधान प्रकृति वाले व्यक्तियों के लिए ‘शतावरी’ और कफ प्रधान प्रकृति वालों के लिए ‘पुनर्नवा’ प्रजनन टॉनिक कहे गये हैं।
मासिक धर्म के विषय में आयुर्वेदिक मत
आयुर्वेद के अनुसार माहवारी त्रिदोषों (वात, पित्त और कफ) द्वारा नियंत्रित होती है। आइये जानते हैं कि अलग-अलग दोषों के कारण माहवारी चक्र पर क्या प्रभाव पड़ता है| माहवारी चक्र सामान्य कहा जाता है, अगर 26-30 दिन के अंतराल पर हो, 5 दिन तक चले, संयमित प्रवाह व रंग हो, रक्त के थक्के न हों, बिना कष्ट के हो, प्रागार्तव (Premenstraul Syndrome) के बिना हो। अलग-अलग दोषों के अनुसार माहवारी चक्र को तीन चरणों में विभक्त किया गया है|
1. कफ चरण
यह चरण माहवारी के अन्तिम दिन रक्त प्रवाह के रुकने से लेकर अंडोत्सर्ग (Ovulation) तक का है। यह वह समय होता है जब गर्भाशय के अंदर श्लेष्मा झिल्ली की परत (endometrium) का निर्माण होता है, कफ की वृद्धि होती है और एस्ट्रोजन बढ़ता है। इसी चरण में शरीर पुनः शक्ति प्राप्त करने लगता है और गर्भाधान के लिए तैयार हो जाता है
2. पित्त चरण
यह चरण अंडोत्सर्ग (ovulation) से लेकर माहवारी शुरु होने तक का है। पीत पिंड (corpus luteum), जो कि अंडोत्सर्ग के बाद बनता है, से प्रोजेस्ट्रोन का अधिकतम स्राव इसी चरण में ही होता है। यह अन्त:गर्भाशय (endometrium) को निषेचित अंडे (fertilized egg) के आरोपण के लिए और स्तनों को दूध की उत्पत्ति के लिए तैयार करता है। यह समय प्रागार्तव (premenstraul syndrome) का भी हो सकता है क्योंकि रक्त व लीवर में पित्त इकट्ठा हो रहा होता है|रक्त-प्रणाली और माहवारी आपस में जुड़े हुए हैं इसलिए रक्त-प्रणाली में ताप अधिक होने के कारण भावनात्मक असंतुलन व चिड़चिड़ापन आदि समस्याएं हो सकती हैं।